Bal Vidushi Devi Bhavani
Deviji had started taking a atmagyan from the school time by Shri haridvadan dave ji maharaj . He teach her (what is life ... Why we are taking birth.. our main motive in Earth... Where we have to go after death...). He gave her a direction with the help of her father (Hari Krishna maharajji). And then she had decided that she will dedicate her entire life to spreading spiritual knowledge to the people.
Gyan Ka Sagar
मनुष्य दुखी इसलिए है कि संसार उसके अनुकूल नहीं है। हम मानव हमेशा सब कुछ अपने अनुकूल चाहते हैं, वैसा नहीं होने पर हम दुखी हो जाते हैं। हम यह क्यों नहीं समझते कि हम इस संसार के मालिक नहीं हैं। हम तो कुछ दिनों के लिए पृथ्वी पर अतिथि बनकर आए हैं।
दुःख का मूल कारण ये है के हमारी इच्छा और हमारी आवश्यकता कभी मेल नहीं खाती। इच्छाएं अनंत है जबकि आवश्यकताएं सीमित होती है । तो अगर इच्छाओं का दमन करेंगे मन के द्वारा और आवश्यकताओं को पूर्ण करने का प्रयास करे तो दुखी नहीं होंगे दुःख का मूल कारण यही है के हम इच्छा बहोत करते है और आवश्यकताओं को ध्यान नहीं देते। आवश्यकताओं की प्राप्ति पर खुश होना और इच्छाओं का दमन करना दुःख से दूर होने का उपाय है।
कर्म के सिधांत के अनुसार हमारे कर्म और उसके पीछे का इरादा हमारे भविष्य को प्रभावित करता है। अगर हम अच्छे इरादे से कोई अच्छे काम करते हैं तो हमें अगले जन्म में उसके अच्छे फल मिलेंगे। मतलब इस जन्म में हम अपने पिछले कर्मों का फल भुगत रहें हैं। इसलिए ये शिक्षा दी जाती है कि इस जन्म में फल की अपेक्षा नही करनी चाहिए।
भगवान कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं कि मन को निरंतर " अभ्यास और वैराग्य " द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। (भगवद गीता, 6.35)। वे कहते हैं कि जहाँ भी और जब भी मन भटकता है, इसकी चंचल और अस्थिर प्रकृति के कारण, हमें इसे वापस आत्मा के नियंत्रण में लाना चाहिए (भगवद-गीता, 6.26)।
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् |
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||
महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी — पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना |
प्रीति । विशेष— परम शुद्ध और विस्तृत अर्थ में प्रेम ईश्वर का ही एक रूप माना जाता है । इसलिये अधिकांश धर्मों के अनुसार प्रेम ही ईश्वर अथवा परम धर्म कहा गया है । हमारे यहाँ शास्त्रों में प्रेम अनिवर्चनीय कहा गया है और उसे भक्ति का दूसरा रूप और मोक्षप्राप्ति का साधन बतलाया है ।
भगवान का स्वरूप स्वयं प्रकाश है। सूर्य, चंद्र, अग्नि परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकते क्योंकि सूर्य आदि में रहने वाला प्रकाश परमात्मा का ही प्रकाश है। स्वामी रमणानंद पुरी दादरी नगर के कीकरवासनी क्षेत्र स्थित श्री बड़ा हनुमान मंदिर परिसर में श्री विष्णु सहस्त्र नाम का व्याख्यान कर रहे थे।
संस्कृत एक अत्यन्त समृद्ध भाषा है और इसे अन्य भाषाओं का स्रोत भी कहा जाता है। वह एक शब्द, जिसका संस्कृत भाषा में भी कोई पर्यायवाची शब्द नहीं, है धर्म। धर्म शब्द अपने आप में इतनी अधिक व्यापकता लिए हुए है कि इसको परिभाषित करना अत्यन्त दुष्कर है। हमें जो करना चाहिए, वो करना और जो नहीं करना चाहिए, उसे न करना ही धर्म है। वेद में पूरा बताया गया है कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इस तरह हम कह सकते हैं कि वेद की आज्ञाओं का पालन करना ही धर्म है। महर्षि मनु ने धर्म के निम्नलिखित दस लक्षण (symptoms) बताए हैं – 1. धृति – सुख, दुख, हानि, लाभ, मान, अपमान में धैर्य रखना। 2. क्षमा – सहनशीलता। बलवान के कष्ट देने पर निर्बल द्वारा उसे सह लेना, क्षमा नहीं है अपितु असमर्थता है। शरीर में सामर्थ्य होने पर भी बुराई का बदला न लेना क्षमा है। दूसरों के साथ अन्याय होते हुए देखना और प्रत्युत्तर में कुछ न करना धर्म नहीं। अपने प्रति होने वाले अन्याय को सहन करने को सहनशीलता कहा जा सकता है। परन्तु, यदि, अपने प्रति होने वाले अन्याय को सहन करना अन्यायी का हौसला बढ़ाने वाला है या समाज में गलत उदाहरण सिद्ध करने वाला है, तो, इसे सहनशीलता मानकर कदापि चुप नहीं बैठना चाहिए। क्षमा का अर्थ माफ करना लिया जाता है, जो कि गलत है। इस संदर्भ में पाठकों द्वारा ईश्वर के गुण – न्यायकारिता व दयालुता का अवलोकन वांछित है। 3. दम – मन को बुरे चिन्तन से हटाकर अच्छे कामों में लगाना। 4. अस्तेय- अन्याय से धन आदि ग्रहण न करना तथा बिना आज्ञा दूसरे का पदार्थ न लेना ही अस्तेय है। अर्थात चोरी, डाका, रिश्वतखोरी, चोर बाज़ारी आदि का त्याग करना। 5. शौच – शरीर के अन्दर की तथा बाहर की शुद्धि रखना। बाहर की अथवा शरीर आदि की शुद्धि से रोग उत्पन्न नहीं होते, जिस से मानसिक प्रसन्नता बनी रहती है। बाहर की शुद्धि का प्रयोजन मानसिक प्रसन्नता ही है। अन्दर की शुद्धि राग, द्वेष आदि के त्याग से होती है। शुद्ध सात्तिवक भोजन तथा वस्त्र, स्थान, मार्ग आदि की शुद्धि भी आवश्यक है। 6. इन्द्रिय निग्रह – हाथ, पांव, मुख आदि इन्द्रियों को अच्छे कामों में लगाना। 7. धी – बुद्धि बढ़ाना। मांस, शराब, तम्बाकू आदि के त्याग से, ब्रह्मचर्य या वीर्यरक्षा से, अच्छी पुस्तकों के अध्ययन से, उत्तम औषधियों के सेवन से, दुष्टों के संग व आलस्य के त्याग आदि से बुद्धि बल बढ़ाना। 8. विद्या – तिनके से लेकर ईश्वर तक सभी पदार्थों का ठीक ठीक ज्ञान प्राप्त करना तथा उनसे यथार्थ उपकार लेना। 9. सत्य – किसी वस्तु के विषय में प्रमाणों द्वारा परीक्षित करने के पश्चात, जैसा अपने ज्ञान में हो वैसा ही मानना, वैसा ही कहना और वैसा ही करना सत्य कहलाता है। 10. अक्रोध – इच्छा के पूरा न होने से, जो क्रोध उत्पन्न होता है, उसका त्याग करना चाहिये। दुष्टों के दमन व न्याय की रक्षा के लिए क्रोध आना ही चाहिए। ऐसे समय में अक्रोध का कवच धारण करना अधर्मी होना है। क्रोध का उद्देश्य बुराई को रोक कर दूसरों का कल्याण करना होना चाहिए न कि बदला लेना।
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06 to 12 October 2022
On the auspicious occasion of Ashwini month, Shrimad Bhagwat Saptah Gyanayagya. The grand event has been organized in the premises of Shri Pashupatinath Temple. Shrimad Bhagwat week of Gyan Ganga for inner happiness Make your life blessed by drinking Arvan. this program of fiction To all of you devotees, Shri Shri Guruji Harikrishna Upadhyay Hearty invitation from the family.
On 06-10-2022, Thursday Afternoon from 2-00 PM to 5-00 PM